दिल्ली जहां एक म्यान में दो तलवारें हैं! पढ़िए कैसे ?

दिल्ली में जीत के लिए एक बार फिर बीजेपी को मोदी से ही उम्मीद

Jan 12, 2025 - 15:55
Jan 12, 2025 - 16:15
दिल्ली जहां एक म्यान में दो तलवारें हैं! पढ़िए कैसे ?

वो साल था 2013। तब बीजेपी ने लोकसभा चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था और दूसरी तरफ अन्ना आंदोलन के प्रोडक्ट..अरविंद केजरीवाल अपनी नई नवेली पार्टी के दम पर दिल्ली में चुनाव की तैयारी में जुटे हुए थे ।

ऐसा लगा जैसे नेशनल पॉलिटिक्स में दो नेताओं का सूर्योदय करीब एक ही समय पर हो रहा था। केजरीवाल ने थोडे वक्त के लिए कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार भी बनाई।

साल 2014 में लोकसभा चुनाव हुए और नरेंद्र मोदी को पब्लिक ने प्रचंड बहुमत के साथ जिताया, प्रधानमंत्री बनाया। जबकि दूसरी तरफ केजरीवाल नेशनल पॉलिटिक्स में मोदी के सामने उन्नीस रह गए...वाराणसी में 20% वोट तो मिले लेकिन सांसदी का चुनाव हार गए। 

मगर हैरानी की बात ये है कि मोदी लहर पर सवार जो पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ देश के दिल पर राज कर रही थी..वो एक साल के अंदर ही दिल्ली में धड़ाम हो गई..2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में मोदी सरकार को जोर का झटका लगा..बीजेपी दिल्ली हार गई...दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल के तौर पर राजधानी को नया नेता मिला..चीफ मिनिस्टर मिला । बस यहीं से दिल्ली में केजरीवाल और देश में मोदी वाला पैरेलल सिस्टम चल पड़ा। 

पिछले दस साल में नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल के तौर पर दो राजनेताओं की सियासत को चुनाव की कसौटी पर कई बार परखा जा चुका है। नरेंद्र मोदी का हासिल ये है कि वो अब देश के सबसे बड़े राजनेता हैं, 2014, 2019 और 2024 में लगातार तीन बार प्रधानमंत्री बने। वर्ल्ड लीडर के तौर पर जाने जाते हैं। अप्रूवल रेटिंग में टॉप पर हैं।

वहीं केजरीवाल का कद भी बढ़ा, पहले 2013-14 फिर 2015 और बाद में 2020 में मुख्यमंत्री बने, लेकिन ये टर्म पूरा करने से पहले कुर्सी छोड़नी पड़ गई। अब फिर मैदान में हैं । इसके अलावा अपनी लीडरशिप के जरिए सिर्फ बारह साल में आदमी पार्टी को नेशनल पार्टी बना दिया। पंजाब में तो आम आदमी पार्टी की सरकार है। 

जहां तक दिल्ली का सवाल है तो चुनौती बीजेपी के लिए बड़ी है, क्योंकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत मोदी की आंखों में कांटे की तरह चुभती है। मोदी के पास सबकुछ है, देश में एनडीए की जीत की हैट्रिक है, कई राज्यों में सरकार है, यहां तक कि लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सभी सात सीटों पर बीजेपी के ही सांसद हैं...लेकिन डबल इंजन की सरकार नहीं है...विधानसभा में आम आदमी पार्टी लगातार दो बार 50% से ज्यादा वोट से चुनाव जीती। जबकि दोनों बार बीजेपी सीट के मामले में डबल डिजिट में नहीं पहुंची।

बीजेपी ने इस बार टिकट बांटने में हर फैक्टर का ध्यान रखा है। जो बाहरी हैं यानी दूसरी पार्टी से बीजेपी में आए उन्हें भी टिकट मिला है, इसके अलावा सांसद रह चुके नेताओं को भी मैदान में उतार दिया है, ताकि आम आदमी पार्टी को हर स्तर पर टक्कर दी जा सके। इसके अलावा शीशमहल, करप्शन के मुद्दे पर, शराब नीति में कथित घोटाले को लेकर बीजेपी एग्रेसिव पोस्चरिंग कर रही है। 

चैलेंज तो केजरीवाल के लिए भी है क्योंकि आम आदमी पार्टी अब तक केजरीवाल मॉडल पर, फ्री बिजली-पानी के मुद्दे पर चुनाव जीती। झुग्गी झोपड़ी वाले वोटर भी आप के साथ दिखाई देते हैं। लेकिन इस बार केजरीवाल के पास सरप्राइज एलिमेंट दिखाई नहीं दिया। दिल्लीवालों के लिए कई ऐलान तो किए गए , महिला, बुजुर्गो के लिए ऐलान किए लेकिन चुनाव डिफाइन करने वाला एक बड़ा मुद्दा गायब दिखता है। 

इतना जरूर है कि ये लडाई दो तरफा ही है, कांग्रेस मैदान में है लेकिन दिखती नहीं...वहीं केजरीवाल को दिल्ली चुनाव में इंडिया अलायंस के करीब करीब सभी बड़े नेताओं का सपोर्ट मिला है। इसके अलावा केजरीवाल का मीडिया मैनेजमेंट भी लुटियंस जोन में टॉकिंग प्वाइंट बना हुआ है।इतना तय है कि जब आम आदमी पार्टी का कोई इवेंट होता है, कोई पब्लिक मीटिंग होती है तो उसे मीडिया में स्पेस जरूर मिलता है। अब जहां तक दिल्ली का सवाल है तो बीजेपी के पास कोई चेहरा नहीं..इसलिए मोदी पर ही दारोमदार है और उनके सामने केजरीवाल की लीडरशिप है।

नरेंद्र मोदी के लिए दिल्ली में जीत इसलिए भी जरूरी है क्योंकि केजरीवाल का हर लेवल पर प्रधानमंत्री के साथ सीधा टकराव दिखा। आम तौर पर प्रोटोक़ॉल रहता है कि अगर स्टेट में कोई भी बड़ा कार्यक्रम होता है...प्रोजेक्ट्स का लोकार्पण होता है तो इसके लिए प्रधानमंत्री को इनवाइट किया जाता है...गैर बीजेपी सरकारें भी ये रवायत फॉलो करती हैं..लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी की प्रधानमंत्री से उचित दूरी बनी रहती है। इसका मैसेज ये जाता है कि पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं होने के बावजूद, एलजी के अधिकार ज्यादा होने के बावजूद, टीम केजरीवाल का सिस्टम सुर्खियों में रहता है।

मोदी बनाम केजरीवाल के टकराव को इस तरह भी समझिए कि अब तक दिल्ली में जितने सीएम हुए..उन्होंने एक तरह से दिल्ली की सत्ता के हाइब्रिड मॉडल को स्वीकार किया। यानी सब एलजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। बीजेपी के सीएम, कांग्रेस शासित सरकार के साथ चले तो वहीं कांग्रेस की शीला दीक्षित भी वाजपेयी सरकार के साथ नजर आईं। कोई अदावत नहीं, मगर केजरीवाल ने इस सिस्टम को बदला और केंद्र से सीधा टकराव मोल लिया। 

पुरानी कहावत है, एक मयान में दो तलवार नहीं रह सकती..बीजेपी यही चाहती है कि इस बार वो दिल्ली विधानसभा में बहुमत हासिल करे...इसके लिए बड़े बड़े नेता झुग्गी झोपडी का रुख करने लगे हैं । वहीं दूसरी तरफ केजरीवाल की सियासी महत्वाकांक्षा भी किसी से नहीं छिपी। वो 2029 के आम चुनाव के लिए खुद को नेशनल लीडर के तौर पर तैयार कर रहे हैं..लेकिन इसके लिए जरूरी है कि दिल्ली में जीत की हैट्रिक लगाई जाए। अब दिल्ली किसकी होगी..कौन बाजी जीतेगा, जनता मोदी की सुनेगी या केजरीवाल की...आठ फरवरी को नतीजों की शक्ल में पता चल ही जाएगा। 

  

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